11-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन 

विजयी बनने के लिये मुख्य धारणाएं

कुछेक ग्रुप्स से मिलने पर बापदादा ने उनसे जो प्रश्न  किए और फिर उन्होंने जो उत्तर दिये उनका सार यहाँ लिखा है:-

प्रश्न :- विजयी बनने के लिये कौनसी मुख्य धारणा की आवश्यकता है? 

उत्तर: - विजयी बनने के लिये अलर्ट रहने की अवश्यकता है। एक होते हैं अलर्ट रहने वाले, दूसरे होते हैं अलबेले रहने वाले। जो सदा अलर्ट होते हैं, वे कभी माया से धोखा नहीं खायेंगे, बल्कि वे सदा विजयी ही होंगे। 

प्रश्न :- 108 की माला में और 16000 की माला में आने के चिन्ह व निशानी क्या है? 

उत्तर: - जो यहाँ सदा विजयी रहते हैं, वही विजय माला में आयेंगे। इसलिए वैजयन्ती माला नाम पड़ा है। जो कभी-कभी के विजयी हैं वे 16000 की माला में आयेंगे।

प्रश्न :- कौन-सा लक्ष्य रखने से सदा विजयी बन सकते हैं? 

उत्तर:- हम अभी के विजयी नहीं, कल्प-कल्प अनेक बार के विजयी हैं। जो बात अनेक बार की जाती है, तो वह स्वभाव-संस्कार में स्वत: ही आ जाती है। जैसे आज की दुनिया में जो बात नहीं करनी चाहिये परन्तु वह कर लेते हैं, तो कह देते हैं कि यह तो मेरा संस्कार बन गया है। तो यहाँ भी अनेक बार के विजयी होने की ‘स्मृति विजय का संस्कार बना’ देगी। 

प्रश्न :- व्यर्थ को समर्थ बनाने की तेज मशीनरी कौन-सी होनी चाहिए? 

उत्तर:- जैसे कोई भी चीज की मशीनरी पॉवरफुल होती है, तो काम तेजी से होता है, तो यहाँ भी व्यर्थ संकल्प को समर्थ करने के लिए बुद्धि रूपी मशीनरी पॉवरफुल हो। बुद्धि भी पॉवरफुल तब होगी जब बुद्धि का पॉवर हाउस से कनेक्शन होगा। यहाँ कनेक्शन टूटता तो नहीं लेकिन लूज़ ज़रूर हो जाता है, अत: अब वह भी लूज़ नहीं होना चाहिए। तभी व्यर्थ को समर्थ बना सकेंगे। 

दूसरे ग्रुप से मुलाकात 

प्रश्न :- ब्राह्मण जीवन का मुख्य कर्त्तव्य क्या है? 

उत्तर:- बाप के याद में सदा स्मृति स्वरूप होकर रहना। जैसे मिश्री मिठास का रूप होती है वैसे ही याद स्वरूप ऐसे हो जाओ कि याद अलग ही न हो सके। अगर बाप की याद छोड़ी तो बाकी रहा ही क्या? जैसे शरीर से आत्मा निकल जाय तो उसे मुर्दा ही कहेंगे? वैसे ही यदि ब्राह्मण जीवन से याद निकल जाय तो ब्राह्मण जीवन क्या हुआ? तो ऐसा याद-स्वरूप बनना है, तो ब्राह्मण जीवन का कर्त्तव्य है - याद-स्वरूप बनना। 

तीसरे ग्रुप से मुलाकात 

प्रश्न :- देहली, यमुना के किनारे पर है, यमुना किनारे का गायन क्यों? 

उत्तर:- जैसे अब साकार रूप में जैसे यमुना किनारे निवास करते हो, वैसे बुद्धियोग द्वारा स्वयं को इस देह और देह की पुरानी दुनिया की स्मृति से किनारा किया हुआ अनुभव करो। संगमयुगी अर्थात् कलियुगी दुनिया से किनारा कर देना। किनारा अर्थात् न्यारा हो जाना। पुरानी दुनिया से न्यारे हो गये हो कि अब भी उसके प्यारे हो? 

प्रश्न :- दशहरे पर सभी रावण का दाह-संस्कार करते हैं, लेकिन अब आपको क्या करना है? 

उत्तर: - आपके अपने में जो रावण-पन के संस्कार हैं, उन रावणपन के संस्कारों का संस्कार करो अर्थात् रावणपन के संस्कारों को सदा के लिए छुट्टी देकर लाभ उठाओ। हड्डियाँ व राख बाँध कर साथ नहीं ले जाना। राख अर्थात् संकल्प रूप में भी रावणपन के संस्कार नहीं ले जाना। 

कुछेक मुख्य बहनों से सम्बोधन 

हर समय अपने को निमित्त बनी हुई समझती हो? जो अपने को निमित्त बनी हुई समझती हैं, उन्हों में मुख्य यह विशेषता होगी - जितनी महानता उतनी नम्रता। दोनों का बैलेन्स होगा। तब ही निमित्त बने हुए कार्य में सफलतामूर्त बनेंगे। जहाँ नम्रता के बजाय महानता ज्यादा है या महानता की बजाय नम्रता ज्यादा है तो भी सफलतामूर्त नहीं बनेंगे। सफलतामूर्त बनने के लिए दोनों बातों का बैलेन्स चाहिए। टीचर्स वह होती हैं, जो सदा अपने को बाप समान वर्ल्ड सर्वेन्ट समझ कर चलती हैं। वर्ल्ड सर्वेन्ट ही विश्व-कल्याण का कार्य कर सकते हैं। टीचर्स को सदैव यह स्मृति रहनी चाहिए, कि टीचर को स्वयं को स्वयं ही टीचर नहीं समझना चाहिए। यदि टीचरपन का नशा रखा तो रूहानी नशा नहीं रहेगा। यह नशा भी बॉडीकॉन्सेस है। इसलिए सदा रूहानी नशा रहे कि - ‘मैं विश्व-कल्याणकारी बाप की सहयोगी विश्व कल्याणकारी आत्मा हूँ।’ 

कल्याण तब कर सकेंगे जब स्वयं सम्पन्न होंगे। जब स्वयं सम्पन्न नहीं होंगे तो विश्व-कल्याण नहीं कर सकेंगे। सदैव बेहद की दृष्टि रखनी चाहिए। बेहद की सेवा-अर्थ जब बेहद का नशा होगा, तब बेहद का राज्य प्राप्त कर सकेंगी। सफल टीचर अर्थात् सदा हर्षित रहना और सर्व को हर्षितमुख बनाना। समझा सफलतामूर्त की निशानी? टीचर को सफलतामूर्त बनना ही है। बाप और सेवा के सिवाय और कोई बात उसकी स्मृति में न हो। ऐसी स्मृति में रहने वाली टीचर सदा समर्थ रहेगी। कमज़ोर नहीं रहेगी। ऐसी टीचर हो? ऐसा समर्थ अपने को समझती हो? समर्थ टीचर ही सफलतामूर्त होती है। ऐसी ही हो ना? टीचर को कमजोरी के बोल बोलना भी शोभता नहीं है। संस्कारों के वशीभूत तो नहीं हो ना? क्या संस्कारों को अपने वश में करने वाली हो? कम्पलेन्ट करने वाली टीचर तो नहीं हो ना? टीचर्स तो अनेकों की कम्पलेंट को खत्म करने वाली होती हैं, फिर तो अपनी कम्पलेन्ट तो नहीं होनी चाहिए। टीचर्स को चांस तो बहुत मिलते हैं। कम्पलेन्ट समाप्त हो गई, फिर तो कम्पलीट हो गये1 बाकी और क्या चाहिए? अच्छा। 

मुरली का मुख्य सार

1. विजयी बनने के लिए सदा अलर्ट रहने की आवश्यकता है। जो सदा अलर्ट होते हैं, वे कभी माया से धोखा नहीं खाते। 

2. व्यर्थ संकल्पों वो समर्थ करने के लिए बुद्धि रूपी मशीनरी को पॉवर हाउस के कनेक्शन से पॉवरफुल बनाओ। 

3. ब्राहमण जीवन का कर्त्तव्य है - याद स्वरूप बनना। 

4. आप अपने से रावणपन के संस्कारों का सदा के लिए संस्कार करो, संकल्प रूप में भी रावणपन के संस्कार साथ न जायें। 

(5) सदा यही रूहानी नशा रखो कि मैं विश्व-कल्याणकारी बाप की सहयोगी विश्व-कल्याणकारी आत्मा हूँ।